सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों के दिन बहुरेंगे जब उनके प्रवेश द्वारों पर लाल और नीली बत्तियों का कभी कभी रेला लगेगा । इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसलें ने शिक्षा के क्षेत्र में अंदर तक घुस चुकी असमानता को खत्म करने की छोटी पहल की जिससे थोड़ी समानता मिलेगी। हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए उत्तर प्रदेश के एमपी, एमएलए, और अधिकारियों को कहा की वो भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजें। हाईकोर्ट के इस फैसले का आमजन ने जहाँ स्वागत किया वही जनता के कर से मिले पैसों से तनख्वाह पाने वाले अधिकारी वर्ग में थोड़ा रोष भी दिखा लेकिन दबी जबान में ।
वही जनप्रतिनिधियों ने अपने वोट बैंक को संभालने के लिए समर्थन तो दे दिया, लेकिन यहां भी मन में कसक वही है जो सरकारी उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों में देखी गई । उत्तर प्रदेश के बेसिक शिक्षा मंत्री राम गोविन्द चौधरी ने कहा हम खुद सरकारी स्कूलों में पढ़े है तो बच्चों को पढ़ाने में क्या दिक्कत है । नेताजी हाईकोर्ट के फैसले पर कुछ कह नहीं सकते वजह साफ़ है ये ऐसा मुद्दा है जिस पर कोई भी बड़ा अधिकारी नेता और एमपी ने मुंह खोला तो उसे उसी जनता को जवाब देना होगा जिन्होंने उन्हें माननीय बनाया । हाईकोर्ट ने साफ़ कहा अगर जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे तो स्कूल की व्यवस्था और स्तर दोनों सुधर जाएगी साथ शिक्षा व्यवस्था भी पटरी पर आ जाएगी ।
भारत सरकार ने 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चो को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने के उद्द्येश्य से अप्रैल 2010 में केंद्र में बैठी यूपीए सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम बनाया । यूपीए सरकार की सबको शिक्षा देने के अधिकार अधिनियम को बनाना मनमोहन सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि माना गया । तभी से राइट टू एजुकेशन को लेकर पूरे देश में चर्चाओं का दौर चला लेकिन ये तय नहीं हुआ की बड़े बड़े प्राइवेट स्कूलों में पढने वाले और सरकारी स्कूलों में पढने वालों के बीच जो पढ़ने पढ़ाने को लेकर असमानता है उस खाई को कैसे पाटा जाए । बहसों का दौर लंबा चला लेकिन हल कोई नहीं निकला हाँ इतना जरूर हुआ कुछ जरुरत मंद गरीब लोगो के बच्चों का दाखिला जरूर अच्छे स्कूलों में मिल गया ।
कोर्ट ने साफ़ किया की उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ऐसे ही सख्त कदम की जरुरत थी । कोर्ट ने प्रदेश के 1 लाख 80 हज़ार प्राइमरी स्कूलों में खाली अध्यापकों के 2 लाख 70 हज़ार पदों को लेकर भी तीखी टिप्पणी की साथ ही ये भी कहा प्राइमरी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं जैसे पीने का पानी और शौचालय आदि भी उपलब्ध नहीं है । कोर्ट की इस कड़ी टिप्पणी पर किसी भी राजनीतिक दल ने मुंह खोलने की जुर्रत दिखाई। बहरहाल इलाहबाद हाईकोर्ट के इस फैसले से उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो सकता है। प्रदेश के कुछ इलाके ऐसे है जो दुर्गम में है और अधिकारियों की पहुँच से बाहर वहा प्राइमरी स्कूल के शिक्षक यदा कदा ही आते जाते ।
कोर्ट के इस फैसले से भविष्य में सुधार के संकेत मिल सकते है साथ ही 70 और 80 के दशक का वो स्वर्णिम युग भी वापस आ सकता है जब प्राइमरी और राजकीय इंटर कालेज के साथ सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढ़े बच्चों ने आगे चलकर ऊंचाइयों को छुवा और समाज में एक अलग मुकाम हासिल किया ।